आलेख
एक ग़ज़ल
आनंद पाठक

कमफ़हमी वाला कुर्सी पर, मैने अकसर देखा है
पूरब जाना,पश्चिम जाए , ऐसा रहबर देखा है
तेरा भी घर शीशे का है, मेरा भी घर शीशे का
लेकिन तेरे ही हाथों में, मैने पत्थर देखा है
नफ़रत की जब आँधी चलती, छप्पर तक उड़ जाते हैं
गुलशन, बस्ती, माँग उजड़ती .ऐसा मंज़र देखा है
मंज़िल से ख़ुद ही ग़ाफ़िल है ,बातें ऊँची फेंक रहा
बाहर से मीठा मीठा है , भीतर ख़ंजर देखा है
एक ’अना’ लेकर ज़िन्दा है ,झूठी शान दिखावे की
उसने दुनिया में अपने से, सबको कमतर देखा है
बच्चे वापस आ जायेंगे, सोच रहीं बूढ़ी आँखें
ग़म में डूबे खोए बाबा. ऐसा भी घर देखा है
लाख शिकायत हस्ती तुम से ,फिर भी कुछ है याराना
जब भी देखा मैने तुमको, एक नज़र भर देखा है
नाम सुना होगा ’आनन’ का. शायद देखा भी होगा
लेकिन क्या तुम ने ’आनन’ का, दर्द समन्दर देखा है?
आनंद पाठक, गुड़गांव