रील की दुनिया रियल से परे!
इस युग में समय की तीव्रता पूर्व से कहीं अधिक हो गई है। एक हीं समय मे हम वर्तमान में (कम) और भविष्य में (अधिक) जिये जा रहें हैं। भविष्य वो जो प्रतिपल वर्तमान है और हर पल अपरिचित।
हम, आज को इस अंदाज में जी रहें हैं जैसे तीर्थाटन से पूर्व की कोई तैयारी हो। हमारा पूरा वर्तमान तीर्थ में उपयोग आने वाले वस्तुओं को इकठ्ठा करने में लगा है जब कि भविष्य एक कपोल कल्पित वहम मात्र है।
आज की ज़िंदगी कैमरे के सामने से लेकर टी.वी. मोबाइल स्क्रीन तक हीं सीमित है।
जितना हमें अपनी रियल अनुभूतियां नही प्रभावित करती है उससे अधिक हम दूसरों के रील की दुनियां से प्रभावित हो जातें हैं।
निरंतर यही प्रयास कर रहें है कि वास्तविक विकास के लीक से हट कर हम यंत्रचलिक बन जाएं। आखिर यह वास्तविक और बनावटी या रियल और रील जैसी विरोधी बातें एक इंसान क्योंकर संभाल रहा है ?
क्यों हमें एक इंसान वास्तव में और सोशल मीडिया पर अलग- अलग दिखाई देता है?
यदि इसका मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण किया जाए तो हम पाते हैं कि हरपल हम खुद से असंतुष्ट है और अपने क्रियाकलापों से खुद को खुश करने का प्रयत्न करते रहते हैं। जिसमे सोशल मीडिया का अहम योगदान है। जहाँ लोगों के लाइक और कमेंट से हम प्रसन्न हो जातें हैं। यही प्रसन्नता हमारे अंदर नशा की तरह व्याप्त कर गया है। जिसके वशीभूत हम अंधे हो गए हैं और अपनी बात को पुनः दोहरा रहा हूँ कि हम अपनी नैसर्गिक विकास को भूल यंत्रचलिक हो गए हैं।
जिसकी वजह से अपनी समझ सूझ बूझ सबको पीछे छोड़ प्रसन्नता की प्राप्ति केलिए नशे में धुत्त एक बड़े हुजूम के पीछे भागे जा रहें हैं।
एक घटना मुझे याद है जब मैं अपने एक मित्र बंटी के साथ पार्टी करने K F C में गया था। मुझे नही पता किन कारणों से मैं उस दुकान की ओर प्रविर्त हुआ मगर वहाँ जाकर इतना जरूर पता चला कि मेरी तरह बहुत से लोग अनायास ऐसी जगहों पर आ जाते हैं। स्वाद की विशेषता को मैं गौण नही मान रहा मगर मेरी तरह एक माध्यम वर्गीय लोगों केलिए यह स्थान उतना भी उपयुक्त नही फिर भी आधे से अधिक लोग जो यहाँ आतें है वो मुझ जैसे ही होते हैं। स्वाद का बखान तो करते हैं मगर अंत में यह भी कह देतें “इट्स नॉट वैल्यू फ़ॉर मनी” इस से अच्छा तो…।
आखिर यह मानसिकता क्या दिखती है? क्यों अधिकाधिक लोग उन लम्हो को आँखों की जगह कैमरे में कैद करना चाहतीं हैं? और फिर उन यादों को स्मरण करने में अपना बहुमुल्य समय खर्च करतें हैं?
यह प्रश्न सिर्फ मेरे दिमाग की उपज नही है, K F C के एक सहयोगी आकाश भाई से बात करने पर उनका भी लगभग यही मानना था।
इन बातों पर विचार करने से एक मूल प्रश्न जो सामने आती है कि क्या हमारे विचार के निर्माण प्रक्रिया में हमारा वैयक्तिक महत्त्व नगण्य है? क्या हम बाजार की दुनिया के प्ररिधि में हीं खुद को बाँधना उचित समझते हैं?
विस्तार से विचार करने की आवश्यकता है।
-रवि राज नारायण
