आलेख
पार्किंग! पार्किंग! पार्किंग!

राकेश चंद्रा
यूं तो बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही शहरीकरण की प्रक्रिया गति पकड़ चुकी थी पर इक्कीसवीं सदी में तो मानों इसे पंख लग गये हंै। रोजगार काी तलाश में ग्रामीण अंचलों से पलायन में आशातीत वृद्धि हुई है और पहले महानगरों में, कालान्तर में, छोटे-मंझोले शहरों व कस्बों में शहरीकरण की प्रक्रिया का विस्तार आसानी से देखा व समझा जा सकता है। फलस्वरूप नगरों में वैध-अवैध कालोनियों की भरमार है। इनमें नित-प्रतिदिन कुछ न कुछ इजाफा होता ही रहता है। वैसे तो ये कालोनियाॅं सामान्यतः आवासीय कालोनियाँ हैं, पर निवासियों की नित्य-प्रति कीे आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ दुकानों व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का निर्माण होना स्वाभाविक है। कालोनियों की स्थापना के प्रारम्भिक वर्षों तक तो आवासीय व व्यावसायिक निर्माण अनुपातिक रूप से ठीक चलता हैं परन्तु शनैः-शनैंः यह देखा जाता कि आवासीय परिसरों में दुकानों की संख्या बढ़नें लगती है। कभी-कभी तो बहुत कम दूरी पर दुकानें सज जाती हैं। यह स्थिति कमोबेश सभी जगह है। दूर-दराज की कालोनियाॅं हों या शहर के मध्यभाग में स्थित पाॅश कालोनियांॅ हों, आवासीय परिसरों का उपयोग व्यावसायिक कार्यों के लिए किया जाना सामान्य प्रक्रिया बन गयी है। इसमें सन्देह नहीं कि निवासियों के लिये यह अत्यन्त सुविधाजनक है पर इस सुविधा में भी एक खास किस्म की असुविधा की ओर ध्यान खींचना अप्रासंगिक न होगा। आर्थिक उदारीकरण के दौर में लोगों की आमदनी में आशातीत वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप आम नागरिक की क्रयशक्ति भी इसी अनुपात में बढ़ी है। इसका एक मानक है सड़क पर चलने वाले वाहनों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि। पिछले कुछ वर्षों से चैपहिया, दुपहिया व तिपहिया वाहनों का मानों अंबार लग गया है। ऐसी स्थिति में में अधिकांश नागरिक, यथासंभव, बाजार अथवा दुकान तक खरीदारी करने के लिए अपने मोटर वाहन का इस्तेमाल करना पसंद करते हंै। अब यहां से समस्या प्रारम्भ होती है। कालोनियों अथवा मुख्य बाजारों में भी सड़के इतनी चैड़ी नहीं हंै कि एक साथ बड़ी संख्या में वाहनों को खड़ा किया जा सके। मुहल्ललों एवं कालोनियों में तो स्थिति अत्यन्त दुष्कर हो जाती है। पतली एवं अपेक्षाकृत कम चैड़ी सड़कों पर स्थित दुकानों के आस-पास बेतरतीब वाहन खड़े कर दिये जाते हंै। परिणामस्वरूप पैदल चलने वालों एवं उन मार्गों से गुजरने वाले अन्य वाहन चालकों के लिय विषम स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे में समस्या को और जटिल बनाते है वे लोग जो अपने वाहनों को दुकान के सामने आड़े-तिरछे ढंग से खडा कर देते हैं। ऐसे खडे किये गये वाहनों से न केवल दुकानों में प्रवेश का रास्ता कठिन हो जाता है, बल्कि वाहनों के टकराव से असहज स्थिति उत्पन्न होती है। सड़क पर गुजरने वाले वाहनों में अक्सर टकराव के कारण दुर्घटनाएं होना भी सामान्य बात है। प्रायः यह देखा गया है कि वाहन चालक सबसे कम ध्यान वाहनों को सही ढंग से खड़ा करने पर देते हैं। यद्यपि ऐसा करने से परेशानी सभी को होती है।
अतः दिन-ब-दिन विकराल होती पार्किंग की इस समस्या का समाधान किया जाना अब समय की मांग बनता जा रहा है। क्या हम यह नहीं कर सकते कि अपने वाहनों को निर्धारित पार्किंग स्थल पर खड़ा करें या यदि ऐसे सुविधा नहीं है तो कम से कम अपने वाहनों को सड़क पर आड़ा-तिरछा तो न खड़ा करें। दुकानों से हटकर यदि रिक्त स्थान उपलब्ध है तो वहां पर भी वाहनों को कतारबद्व खड़ा किया जा सकता है और एक बात सबसे महत्वपूर्ण है कि थोड़ी दूरी पर स्थित दुकानों अथवा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिये यदि पदयात्रा का सहारा ले लिया जाए तो काफी हद तक अप्रिय परिस्थितियों से बचा जा सकता है। आखिर इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिये हमें ही आगे आना होगा। बेहतर विकल्प की खोज एक अनवरत यात्रा है जिसमें पहला कदम ही सबसे महत्वपूर्ण है। समय संकल्पित होने का है।
राकेश चंद्रा
लखनऊ