
__भूपेश प्रताप सिंह
एक दीप बाहर जलता है
प्रबल थपेड़ों को सहता है।
झुक- झुककर बारी-बारी से
हर दिशि को चूमा करता है।
इसी प्रेम के वश में होकर
प्रबल चोट भूला करता है।
प्रकृति सुंदरी की गोदी में
ध्यानमग्न गीता पढ़ता है।
सबको सदा प्रकाशित करता
अपना तन रीता करता है।
एक दीप भीतर जलता है
अंतस का हर तम हरता है।
महाज्ञान के विश्वकोश का
हर कपाट खोला करता है।
स्मृति मेधा छमा दया से
वह मधु रस घोला करता है।
जीवन के हर महाग्रंथ के
सभी गाँठ खोला करता है।
निज साधक के उर आँगन को
सहज भाव पावन करता है।
एक दीप अधरों पर जलता
रचता शब्द मधुर बंधन के।
जग के हिय के जगतसिंधु के
सदा पराये कुछ अपनों के।
ज्योतिर्मय करता रहता है
दिवस भानु निशि में हिमकर से।
जलते जर्जर शब्दों के तन
ज्यों जल बिंदु झरें जलधर से।
अंदर बाहर मुख देहरी पर
विमल दीप जलता रहता है।
भूपेश प्रताप सिंह
पट्टी प्रतापगढ़
उत्तर प्रदेश