
__डॉ.रामावतार सागर
कॉफी हाऊस है
और हैं मैं और तुम
और बीच में पसरी ये टेबिल
कॉफी हाऊस के सन्नाटे के बीच
बतिया रही है तुम्हारी आँखें
आज कुछ ज्यादा ही मुखर होकर
जो कुछ भी मौन नहीं कह पाया
आज तुम्हारी आँखें बोल रही है
चिट्ठियों का कहा….अनकहा
सब कह रही है तुम्हारी आँखें
मेरे पास न आँखें है और ना शब्द
तुम्हारी ही आँखों से
पढ़ना चाहता हूँ खुद को
एक इबारत सी तुम मेरे सामने हो
जिसे पढ़ कर मुझे देना है
इंतिहान….प्रेम का
डूबकर पढ़ लेना चाहता हूँ तुम्हें
पास कर लेना चाहता हूँ
वो हर परीक्षा….जो पहुँचा दे मुझे
प्रेम की दूसरी सीढ़ी पर
जहाँ मैं और तुम मिलकर हम हो सके
(2)
तुम्हें बतियाने को रहते थे
ढेरों लफ्ज…..और
मेरे पास पसरा रहता था मौन
आज फिर कॉफी हाऊस है
और हैं हम…
आज भी बीच में पसरी है टेबिल
और उस पर फैले हैं
हमारे हाथ…एक दूसरे को थामे
विश्वास दिलाते कि रहेंगे सदा साथ
अब भी हमारी आँखें खोई है
एक-दूसरे की आँखों मेंं
अब भी इनमें बसा है प्रेम
जो अब बयां होने लगा है
हाथों की लरज़िश से भी
बातूनी तुम्हारी आँखें
आज भी बोल-बोलकर
रटा रही है ढाई आखर
इतने दूर निकल आने पर भी
प्रेम न जाने क्यों बँधा रहता है
गठरी की तह में….जीवन की
जरूरी चीजें बाँध ली जाती है
वैसे ही जरूरी होता है
जीवन के सफर में प्रेम
इन ढाई आखर से पूरा हो जाता है
जीवन का ढाई कोस सफर
डॉ.रामावतार सागर
कोटा, राज.