__भूपेश प्रताप सिंह

तिराहे पर जूता गाँठता मोची
सभी को गंदा दिखता है।
बाबू के पंजों को बचाने वाला
क्यों गंदा लगता है?
वह मेहनती है कर्मशील है
सिर पर तिरछी लटक रही छतरी
सूरज को चुनौती है।
पॉलिश के रंगों से सनी हथेली
चमड़े को आकार देती हथेली
मौन हो धागे को खींचती उँगलियाँ
एक साथ उठती हैं नमस्कार को ।
गरीब की इस सरलता पर
साहब को शर्म आती है
यह अभिवादन ,शान में गुस्ताखी है।
शायद वह नहीं पढ़ सका
स्कूल गया होगा वह भी कभी
पीछे बैठा दिया गया होगा
मास्टर ने नई बिरादरी बना दी होगी।
गरीब हुआ तो मोची बन गया।
आज इसकी आँख में कीचड़ है
लेकिन हाथ मैले हैं साहब !
इससे पहले कि आपका जूता
उलटा गाँठ दे,इसका हक लौटा दो
देर तो बहुत हो चुकी है
फिर भी गरीब है यह
आपको ज़रूर माफ़ कर देगा।
कवि, संपादक एवं समीक्षक
भूपेश प्रताप सिंह
पट्टी प्रतापगढ़ , उत्तर प्रदेश