
डॉ.रमेश कटारिया पारस
पहले सी अपनी अब वो वसुंधरा नहीँ रही
वीरों को जन्म देती वो उर्वरा नहीँ रही
सभी इंद्रियां है सुप्त ज्ञान के दीपक बुझे हुए
अंधकार में जो राह दिखाती वो ऋताम्भ्रा नहीँ रही
हम क्यू ना आँख फेर ले बच्चो को देख कर
बडो को सम्मान देने की परम्परा नहीँ रही
बढ़ते ही जा रहे है यहाँ पाप इस क़दर
ये क्या है कम के धरती थरथरा नहीँ रही
अब के शायद राम भी वनवास ना जा पाएँगे
कैकयी को सिखाने वाली मंथरा नहीँ रही
भूख से बेहाल बच्चे सो जाते है फुटपाथ पर
क्या अब अपनी धरती माँ विषम्भ्रा नहीँ रही
दांनवो ने घेर रखा है आज़ सारे विश्व को
नीलकंठ की आँख क्या प्रल्यांकरा नहीँ रही
दो पल जहाँ गुजार लो पारस तुम चैन से
सीमेंट के जंगल में वो कन्दरा नहीँ रही