__पिंकी मिश्रा

उतरकर हिमालय की गोदी से ,जब धरती पर आती हूं
गले लगा कर सभी बाधाओं को , स्वयं रास्ता बनाती हूं
ऐसे तो रूप हैं कितने मेरे , इस सृष्टि में वर्णित
जीवन संघर्ष के इस रूप में ,बहती सरिता कहलाती हूं ।
वनवास के चौदह वर्ष ही तो , रघुनंदन ने है देखा
उर्मिला -लक्ष्मण के हिस्से में यही , विरह की है रेखा
रघुवंश के सिंहासन को मिल गया, राजा राम सा सेवक
ताउम्र वन में सहती हुई पीड़ा , मैं सीता कहलाती हूं ।
रहती हूं पाषाण हृदय में भी , बहुत कोमल हृदय लेकर
सिंचित करती आई हूं सृष्टि को, दृग् झरते मोती देकर
छली भी जाती हूं मैं ही , होती शापित शीला बनती
नारायण मोक्ष देते हैं तब ही तो अमिता कहलाती हूं ।
जब भटकता है मनुज जग में,बहुत विचलित हृदय लेकर
किया है शांत मैंने ही , प्रेम, स्नेह सुधा , संजीवनी देकर
कभी बनी काली , कभी दुर्गा , कभी है रूप लक्ष्मी का
समर्पित है जीवन कर्तव्य पथ मेरा,मैं उपकारिता कहलाती हूं।
स्वरचित :
पिंकी मिश्रा
भागलपुर बिहार