
__डॉ रामशंकर चंचल
सिर पर
लकड़ियां की गठरी
पीठ पर मासूम बच्ची
चल देती हैं वह
ऊंची पहाड़ी से रोज़
पेट की खातिर
एक लंबा। कंकरीला
रास्ता तय कर
शहर के बीच
शहर
जहां धूरती है
शैतानी आंखे
उसकी गरीबी से झांकते
नव यौवन को
और वह
उसे नज़र अंदाज कर
चलती रहती हैं
बेधड़क
स्वाभिमान से
दर दर भटकने के बाद
बे मुश्किल बिक पाती हैं
उसकी लकड़ी
उसके आंके मूल्य की
आधी कीमत में
उसी अर्थ से
नमक और मिर्च ले
निकल पड़ती है
शहर से अपने घर
अपने परिवार के बीच
घर जो टिका है
चार खम्बो पर
लकड़ी और कवेलू के
चंद टुकड़ों पर
जहां पहुंच
महसूस करती है
वह एक
अजीब सुख सुकून
अपने परिवार के
बीच
आत्मीक आनंद और
सुखद अहसास
डॉ रामशंकर चंचल
झाबुआ मध्य प्रदेश