__वीना आडवाणी तन्वी
चार दीवारी में सीमित थी कभी मेरी जिंदगी
कभी कविता नहीं गुनगुनाती थी।।
कभी मैं तो परिवार के दायित्वों में उलझी
कलम तक नहीं चलाती थी।।
खुशनुमा जिंदगी में अपनों कि मुस्कान देख
खिलती , खिलखिलाती थी।।
वक्त के हर पहलुओं को मैं सुनेहरे तारों
से बुन एक माला में सजाती थी।।
पर वक्त को रास न आया मेरा खुशनुमा
चेहरा , आज आंसू बहाती थी।।
हर एक वक्त के दिये जख़्मों को सच
आज भी शब्दों में सजाती थी।।
शब्दों से खेलना सीखा एसा हर बात
कविता में लिख समझाती थी।
सीखा , जाना वक्त के हर एक दर्द ए
थपेड़ों से , आज खुद कि पहचान पाती थी।।
साज खो गई थी वीणा कि कहीं दर्द ए
वक्त के हर थपेड़ों संग ,
आज फिर वीणा साज को सुर देकर
लिख जीना ही चाहती थी।।
जी रही आज भी मैं जमाने को सीख देकर
हां सच आज मैं फिर मुस्कुराना चाहती थी।।
वीना आडवाणी तन्वी
नागपुर, महाराष्ट्र