एक सुहानी शाम बेच कर
सहर का आफताब लाई हूं।
समझौते की मंजिल को छोड़कर
रास्तों से चुन अपने अधुरे ख्वाब लाई हूं।।
मुकद्दर ने कई मर्तबा देने से इंकार किया है
पर इश्क था वो मेरा ,
मिलेगा जरूर मैने भी एतबार किया है।
आबशार सी मंजिल को कैसे
आतिश की माशूका अपना घर बनाती?
रिवायती चोंचलो को कुबुल कर
अधुरे ख्वाब कैसे मुकम्मल कर पाती?
बस इसी कश्मकश को दूर करना था,
जिससे इतिहास में कुरबतें थी,
अब वापस उसे करीब करना था।
मैंने एक अधुरे किस्से का आगाज़ किया था,
जिससे मुकम्मल ख्वाब के अंजाम तक पहुंचना था,
कोई शिकस्त नही , वो मेरी जीत का फसाना था।।
@भव्या कृति
