पिता की उंगली थामे जो चलती थी
जाने कब वो बेटी बड़ी हो गई,
घुटनों के बल चलते चलते
न जाने कब कांधे तक आ खड़ी हो गई,
लाडली है वो बहुत मगर
नुमाइश उसकी लगाता है
पत्थर दिल हो कर पिता अपनी बेटी की खूबियां गिनाता है
आसान नहीं होता है रोकना आंसुओं को
जब घड़ी बेटी के विदाई का आता है,
कोई मेहमान रह न जाए जर्रे नवाज़ी से
बहन के भाई को बार बार ये बतलाया जाता है
नुक्स निकाले जाते हैं हर एक प्लेटों से
जिसके हर एक निवाले में उम्र भर की कमाई लगाया जाता है,
सौंपना पड़ता है कलेजे का टुकड़ा अपने सर झुका कर
ये रिवाज़ है फिर ये दिखलाया जाता है
मंत्रों के कुछ उच्चारण से खून का रिश्ता ठुकराया जाता है
है पराई आई है पराए घर से नहीं है कोई घर इसका अपना फिर जीवन भर समझाया जाता है,
मोहब्बत दिखाई जाती है प्यार लुटाया जाता है
आंसु बहाए जाते है अधिकार दिखाया जाता है
मेरे मन की रही बस एक ही विडंबना क्यूं बेटी को कही नहीं
सच्चे दिल से अपनाया जाता है ।।
शिल्पा सिंह
भदोही
