मजबूर न करो

वीणा गुप्त
मैं जननी हूंँ,
सहचरी हूंँ।
भगिनी हूंँ,।
आत्मजा हूंँ तेरी।
पाल-पोस रही हूंँ
भविष्य को तेरे ,
अंचल में अपने दुलार से।
कर रही हूंँ ,
अनेक समझौते अवांछित।
केवल इसलिए
कि वंशज तेरे रह पाएंँ सुरक्षित,
पुंसत्व न हो तेरा आहत।
नदी सी बह रही हूंँ
पथरीले रास्तों पर।
सिर टकराती,
लहुलुहान होती।
केवल इसलिए कि
जीवन तेरा समतल बने।
खुद प्यासी रह कर भी
तुझे सदा अमृत छकाया।
ताकि तू लहलहा सके।
पर बता तो,
बदले में इसके मैंने क्या पाया?
रोज नए झूठ परोसे हैं,
तुमने समक्ष मेरे।
पन्ने प्रवंचना के जोड़े,
रोज जीवन में मेरे।
कभी देवी कह,
रौंद देते हो भावनाएंँ मेरी।
कभी सहचरी बताते हो।
पर साथ चलने से कतराते हो।
कभी प्राण कहते हो,
मगर अस्तित्व मेरा झुठलाते हो।
मुझे माया,छलना, तृष्णा के
दाग़दार तमगे पहनाते हो।
बड़ी लकीर को मिटा कर
छोटी लकीर को
मेरी तकदीर बनाते हो।
अपनी असंतुष्टि, अपनी कुंठाओं,
अतृप्त लालसाओं,
हर कुकर्म का ढीकरा
मुझ पर ही फोड़ते हो।
हर बंदूक
मेरे कंधे पर रखकर
चलाते हो।
खुद महान बन जाते हो।
सच्चाइयों से अपनी
वाकिफ़ हो बखूबी।
इसीलिए तो
आईना देखने से कतराते हो।
युगों-युगों से सहती आई
अन्याय,अतिचार यह।
सतयुग में शैव्या के रूप में
मेरी बोली लगाई।
हरिश्चंद्र कहाते तनिक न
लाज आई।
त्रेता में छला इंद्र बनकर,
और गौतम से मुझे ही
पाषाण बनवाते हो।
अग्निपरीक्षा लेते हो।
वनवास भी दिलाते हो।
द्वापर तो
पराकाष्ठा है शोषण की।
जुए में खुद को हारे पति से
मुझे दांव पर लगवाते हो।
कब रखी ‘पत ‘,पत्नी की तुमने।
किस मुंह से ‘पति’ कहाते हो।
कलियुग की तो कथा अनंत है।
नारी की व्यथा बेअंत है।
पूजा करते देवी मां की
शक्ति के आराधक कहाते हो।
लेकिन इन्हीं के साथ
करते हो दरिंदगी,दरिंदे बन,
वहशियत को भी शर्माते हो।
मेरी हर उपलब्धि
तुम्हें चुनौती लगती है।
तुम्हारे पौरुष को
देती है करारी चोट।
तुम्हारे कहानी ,किस्से
ग़ज़ल और कविता सब झूठ हैं।
तुम मेरी खिल्ली उड़ाते हो।
घड़ियाली आंँसू बहा
संवेदना बटोरते हो।
मुझे लूटते हो।
खुद को प्रताड़ित बताते हो।
बहुत हुआ ,बस अब और नहीं
बाज आ अब तू,
अपनी करतूतों से
मुझे मजबूर न करो।
कि मैं नारी
हर लक्ष्मण रेखा लांघ ,
निकल आऊं बाहर।
और गर ऐसा हुआ तो,
जान ले इस बार
मेरा अपहरण नहीं,
रावण का मरण होगा।
शिव को छोड़
शक्ति चलेगी जब
तो शिव शव होगा।
रणचंडी तांडव करेगी
खुलेगा तीसरा नेत्र
भस्म तेरा अहम होगा।
घड़ा भर गया पापों का तेरे।
अब कोई समझौता नहीं,
अब प्रचंड यह रण होगा
लुंठित होगा काली के चरणों में तू,
अब महिषासुर मर्दन होगा।
अब मरण और केवल मरण होगा।
तभी नारी जागरण होगा।
वीणा गुप्त
नारायणा विहार
नई दिल्ली