
__– नरेन्द्र प्रसाद सिंह
ताल पत्र से बुने पंखे झलते
माॅऺ को देखा था मैंने
वात्सल्य के रसीले रसों से सने
मधुरस को चूसा था मैंने
माॉऺ की लोरियाॅऺ सुनकर
थपकियाॅऺ खाकर
नींद की थपकियों में सपने
देखे थे मैंने
आज माॅऺ के साथ
लोरियाॅऺ भी चलीं गईं
माॅऺ का वात्सल्य अपनत्व
घिनौने बाज़ार में
बेचे जा रहे हैं
इसके साथ- साथ बिक रही है
पुत्रत्व की चंचल शेखी चाल!
- नरेन्द्र प्रसाद सिंह
नवादा (बिहार)