ललित आलेख

सूबेदार पाण्डेय
#दानेन पाणिर्नतुकंकणेन#
श्लोक —कश्चधर्म:परालोके ,
कश्चधर्म: सदाफल:।
किं नियम्य न शोचन्ति,
कैश्चसंधिर्न जिर्यते।
अर्थात्–लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है?
सदा फलदाई धर्म क्या है?
किसे बस में कर लेने से चिंता मुक्त रहा जा सकता है।
किसकी मित्रता कभी पुरानी नहीं पडती।
श्लोक—आनृसंस्यंपरो धर्म:,
स्त्रयीधर्म:सदाफल:।
मनोयम्य न शोचंति,
संधि:सद्भीर्नजिर्यते।।
अर्थात्–लोक में सर्वोत्तम धर्म दया है, वेदोक्त धर्म सदा फलदाई है,
मन को वशीभूत रखने वाले सदा सुखी एवम् चिंता मुक्त रहते हैं।सज्जन पुरुष की मित्रता कभी पुरानी नहीं पड़ती।
(महाभारत वन पर्व ३१३)
संस्कृत वांग्मय में भी यह सूक्ति है,
विभुक्षितं किं न किं न करोति पापं
अर्थात् भूखा प्राणी कौन सा अधम पाप नहीं करता, वह अपनी क्षुधा पूर्ति के लिए चोरी के अलावा भी तमाम जघन्यतम कृत्य करने के लिए विवश होता है। वहीं पर विभिन्न लोक कहावतों में भी भूख की पीड़ा ही प्रतिध्वनित होती है।
यथा —क्षुधापीर सहित सकै न जोगी।
अथवा
भूखे भजन न होई गोपाला।
उपरोक्त संस्कृत सूक्ति,लोककहावतों के निहितार्थो
का स्पष्ट संकेत क्षुधाजनित पीड़ा की तरफ करते हैं, वहीं पर पौराणिक अध्ययन के दौरान जीवन में अन्न के महत्व पर प्रकाश डालती अनेक घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं। जो मानव जीवन में खाद्यान्न के महत्व को दर्शाती हैं,इस
क्रम में द्रौपदी के जीवन की अक्षयपात्र कथा, सुदामा रत्नाकर महर्षि कणाद् का जीवन दर्शन
का पौराणिक घटना क्रम अवश्य ही पठनीय है, जो क्षुधा पूर्ति में अन्न की महत्ता दर्शाती है।इस क्रम में याद करिए भूख से बिलबिलाते, विप्र सुदामा के परिवार की कथा,
तथा रत्नाकर , महर्षि कणाद् का जीवन वृत्त सारे प्रसंग भूख भोजन तथा अन्न के इर्द-गिर्द गोल गोल घूमते नजर आयेंगे।
मानव हों, पशु हों, पंछी हों, कीट पतंगे हो, हर जीव क्षुधा पूर्ति हेतु प्रयासरत दीखता है, इस क्रम में प्रकृति ने हमें दूध दही फल फूल शाकवर्गीय वनस्पतियां, प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाले खाद्यान्न फसलों का उपहार दिया, लेकिन उसके बावजूद एक तरफ जहां विश्व की बहुसंख्यक आबादी भूख तथा कुपोषण की पीड़ा जनक परिस्थितियों से दो-चार होती दीख रही है, वहीं पर अदूरदर्शिता पूर्ण निर्णयों के चलते होटलों, वैवाहिक समारोहों, खुले आसमान के नीचे
भंडारित सड़तेअन्न तथा पके निष्प्रयोज्य खाद्य-पदार्थ जिससे लाखों भूखों की भूख मिटाई जा सकती थी, लेकिन ऐसा होता कहां दीखता है, एक तरफ जहां आज भी गरीब वर्ग दीन हीन अवस्था में साधन सुविधा से वंचित अन्न के दाने दाने को मोहताज दीखता भूख
एवम् कुपोषण से मरता दीख रहा है। वहीं पर नवधनाढ्य वर्ग अन्नो
की बरबादी का जश्न महंगे होटलों
तथा आयोजन के साथ मनाता है।
जो कहीं न कहीं से उसके झूठी शान तथा अहं की तुष्टि का हिस्सा है।
हमारे प्रत्येक मांगलिक कार्यों तथा धार्मिक आयोजन का संबंध देवी देवताओं के आवाहन पूजन एवम्
विसर्जन से जुड़ा है, हम जीवन के उन सुखद पलों को यादगार बनाने के क्रम में हर आयोजन के प्रारंभ अथवा अंत में प्रीति भोजों का आयोजन करते हैं।उन आयोजन के निर्विघ्न समापन हेतु देवियों देवताओं का आवाहन पूजन करके
भांति-भांति के प्रसाद फल फूल समर्पित करते हैं। लेकिन आयोजन की पूर्णता के बाद शेष बचे हुए व्यंजन अवशेषों को खुले आसमान तले सड़कों के किनारे कूड़े के ढेर पर फेंक देते हैं,जो सड़ कर वातावरण को प्रदूषित तो करता ही है ,वह फिजूलखर्ची तथा अकुशल प्रबंधन का भी प्रतीक है,क्या ही अच्छा होता जब प्रायोजक द्वारा आयोजक की सेवा शर्तों में यह बात भी जोड़ दी जाती कि सफल आयोजन के बाद बचे अन्न अवशेषों को किसी लोक सेवी संस्था को दान कर दिया जाता जिससे सेंकड़ों नहीं हजारों की संख्या में भूख तो मिटती ही, वातावरण भी प्रदूषित होने से बच जाता , तथा उन दरिद्रनारायणों के हृदय से मिलने वाले आशिर्वाद से जीवन में मंगल ही मंगल होता।वर्ना
लक्ष्मीऔर अन्नपूर्णा के रूठने पर
दरिद्रता भूख पीड़ा बीमारी से उपजा आसन्न संकट आप के दरवाजे पर खड़ा खड़ा अपने गृहप्रवेश के अशुभ घड़ी का इंतजार कर रहा होगा।
हम सभी से आज भी अपने आसपास तमाम ऐसे गरीबवर्गीय
महिलाओं बच्चों से आमना-सामना होता होगा, जिनके तन पर फटे झूलते चीथडों में बंटे बस्त्र तथा खाली पेट उनकी गरीबी लाचारी तथा बेबसी को बयां करते मिल
जायेंगे, तो वहीं दूसरी तरफ नवधनाढ्यों की अलमारियों में अटे
पड़े पुरानें कपड़े जो उपयोग में नहीं है,वे चाहे तो उन तमाम कपड़ों को धुलवाकर तमाम गरीबों का तन
ढक कर नर से नारायण की श्रेणी में जा सकते हैं। इधर बीच कुछ लोकोपकारी संस्थाओं के ऐसे लोग सामने आये हैं,जिनका नारा ही है#नर सेवा नारायण सेवा#
जो नेकी की दीवार बनाते हैं,जो घर घर से बचें पके अन्न संग्रह कर तथा आयोजनों के बाद बचे हुए अवशेष तथा दान में प्राप्त पुराने बस्त्रो से गरीब का पेट भरने तथा उनके तन ढकने कार्य करते हैं, तथा उन धनवानों को भी पुण्य लाभ का अतिरिक्त अवसर उपलब्ध कराते हैं।जिसे देख सुन कर बड़ी ही सुखद अनुभूति होती है, वरना हम
मिथकीय मान्यताओं को ढोते हुए
मंदिरों मस्जिदों गुरद्वारों तीर्थ स्थानों में भटकते ही रहेंगे।
किसी विद्वान का मत है कि #प्रार्थना करने वाले ओठों से किसी की सहायता में उठने वाले हाथ ज्यादा पवित्र होते हैं आइए हम किसी की सहायता का संकल्प ले#
(अज्ञात)
तभी तो धर्म कर्म की व्याख्या करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा कि——परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
परपीडा सम नहिं अधमाई।।
(रा०च०मानस०)
इसी सिद्धांत का समर्थन संस्कृत भाषा का यह श्लोक भी करता है।
श्लोक——
श्रोतंश्रुतेनैव न कुंडलेन,
दानेन पाणिर्नतु कंकणेन।
विभातिकाय:करूणापराणाम्,
परोपकारैर्न तु चंदनेन।।
(अज्ञात)
अर्थात्—कानों की शोभा शास्त्रों के श्रवण से है, कुण्डल पहनने से नहीं। हाथों की शोभा दान देने से है, कंगन पहनने से नहीं। दयालु पुरूषों की शोभा परोपकार से है चंदनादि लेपन से नहीं ।इस लिए शरीर को आभूषण से नहीं सुंदर गुणों से सजाना चाहिए।
इस क्रम में उन दयावानों का अभिनंदन बंदन सहयोग तथा समर्थन अवश्य किया जाना चाहिए।जो तन मन धन तीनों से ही
नेकी के कार्यों से जुड़े हैं।आप और हम सभी नेक व्यवस्था का अंग बनें
औरअंत में #शुभंभवतु #
रचनाकार—–सूबेदार पाण्डेय कवि आत्मानंद जमसार सिंधोरा बाजार वाराणसी पिन कोड 221208 मोबाइल 6387407266
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