कवितासाहित्य

समय बहुत बलवान होता है…

समय कितना बलवान होता है
ले जाता है दूर
हमसे हमारी हंसती खेलती दुनिया
यह नहीं कि रहता नहीं कोई अपना
इस जगत में
बल्कि यह, कि सब धीरे धीरे ढोंग लगने लगता है
किसी तस्वीर को देख कर,
याद अपना वजूद ज़ेहन में लाते लाते
जैसे ठिठक जाती है
और फिर रुक जाती है
नहीं समझ पाते ,
न मैं, न मेरा मन

कि जो समय हमने मिलकर लिखा था,
मन का जो समंदर था
जिसके इक किनारे पर
हंसते गाते, न जाने के वादे किए थे कभी
क्या था , कैसा था वो दिन?
मिथ्या को पहचानना मुश्किल होता जाता है
तब सच था या अब सच है?
मन उलझता जाता है
समय अधिक बलवान होता जाता है

वो आकृतियां जो समय ने चुनी हैं
क्या उनके अंश आपस में टकराते नहीं होंगे?
क्या नहीं किया होगा उन्होंने विद्रोह?
क्या आसान होता है,
रेत पर बनी पहले की आकृतियों को
सचमुच मिटा पाना?
क्या समय ने तोड़ दिया है जो
इस रेखा को
वो दो रेखाएं
आगे जाकर नहीं मिलेंगी?
नियम तो उन्हें मिलाता है
ज़रूर से
लेकिन हम नहीं जानते,
कब? कैसे?
कुछ रेखाएं अलग होती हैं
गणित के नियमों से

यहां पर गणित याद आता है
फिर तस्वीरों की याद दोगुनी हो जाती है
प्रेम अटूट रहता है
समय बहुत बलवान होता है।

_ ईशिता प्रवीण

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Shiveshwaar Pandey

शिवेश्वर दत्त पाण्डेय | संस्थापक: दि ग्राम टुडे प्रकाशन समूह | 33 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय | समसामयिक व साहित्यिक विषयों में विशेज्ञता | प्रदेश एवं देश की विभिन्न सामाजिक, साहित्यिक एवं मीडिया संस्थाओं की ओर से गणेश शंकर विद्यार्थी, पत्रकारिता मार्तण्ड, साहित्य सारंग सम्मान, एवं अन्य 200+ विभिन्न संगठनों द्वारा सम्मानित |

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