साहित्य
सरस्

रीमा सिन्हा
अन्तःकोलाहल से दूर,
जो सरस जीवन बिताता है,
सही मायने में मनुज वही ,
खुशहाल कहलाता है।
कोई पर्ण कुटीर में भी,
सरस जीवन बिताता है,
कोई महलों में रहकर भी,
व्यथित रह जाता है।
समृद्धि यदि सरसता का आधार होती,
मीरा ना वन वन भटकती होती।
गौतम राजमहल छोड़ खुश न होते,
अट्टलिकाओं में रहने वाले एकाकी न रोते।
ईश्वर प्रदत्त उपहार है जीवन,
सरसता के बीज जो इसमें बोता है,
वह सदा रहता संतुष्ट समृद्ध,
पर ना जाने क्यों मनुज
दुर्लभ जीवन यूँ प्रतिपल खोता है।
रीमा सिन्हा(लखनऊ)